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बाल स्वरूप में पूजी जाती है मॉ बुंखाल की कालिंका

स्पेशल स्टोरी मॉ बुखांल कालिंका पर हरेन्द्र नेगी गॉव तक लाइब डाट काम पर भी देख सकते हैं।
बाल रूप में पूजी जाती है मॉ बुंखाल की कालिंका
बाल कालिंका को काली के रूप में पूजा जाता है।
ज्यादातर छेटी बच्चीयों और महिलाओं पर अवतरित होती हैं मॉ
मात्र सुमरिन करने से ही कष्ट दूर कर देती है मॉ कालिंका,
देश विदेश किसी भी कोने में सकंट मोचक के तौर पर मॉ रहती है हमेशा साथ
इस मंदिर में होते है मां काली के रौद्र रूप के दर्शन
पौड़ी जिले में स्थित प्रसिद्ध बूंखाल कालिंका मंदिर में मां काली के रौद्र रूप के दर्शन होते हैं और मां अपने भक्तों की सभी मनोकामनाएं पूरी करती है।
स्पेशल स्टोरी -प्रत्यक्ष् किम प्रमाण,जख देवतो का ठो छन तख हमरा गौं छन,

मॉ बुंखाल की कालिंका की कथा कहें या कहानी अजीबो गरीब सी है होगी भी क्यों नहीं बाल स्वरूप में पूजी जाने वाली है मॉ बुंखाल की कालिंका –गाय बच्छी चुगाने गये गॉव के ग्वाल बाल आपस में छुपन छुपाई खेलते खेलते इस छोटी से नन्ही सी बालिका को एक गढढे में छुपा देते हैं और भूल जाते है कि हमने अपने साथ की ही एक छोटी सी बच्ची को मिटटी के गढढे में रख कर ढक दिया है और वह वहीं दफन हो गयी । लेकिन एैसा संयोग होना था, उसको बाल रूपी मॉ कालिका का स्थान जो प्राप्त करना था,जब वह घर नहीं आयी तो इधर उधर पूछने पर जब कहीं पता नहीं चला तो स्वंम जब वह अपनी मॉ के स्वप्न में जाती है और कहती है कि हमारे साथ के बच्चों ने मुझे इस गढढे में दबा दिया था उसने अपनी मॉ को कहा कि मेरी इसी स्थान पर एक छोटा मंडुला बना देना /मंदिर बना देना और मै हमेशा आपकी रक्षा करूगी। ये दिन था और वो दिन था मॉ कांलिका बाल स्वरूप में काली का रूप लेकर बुखाल कांलिका के रूप में हमेशा के लिए प्रचिलित हो गयी और मॉ का जगह -जगह प्रचार होने लगा और मॉ बुंखॉल की कालिका के नाम से प्रसिद्धी प्राप्त हो गयी ।जो आज पूरा गढवाल ही नहीं कुमॉउ देश विदेश में मॉ की हर जगह गुनगान होता है और जयकारे लगते हैं। संकट में मॉ को याद किया जाता है और मॉ हर किसी की मनोकामना पूर्ण करती है।
मान्यता -इतिहास बताता है की जब गोरखालियों ने उत्तराखण्ड में गॉव- गॉव में अत्याचार और आक्रमण किया तो इस क्षेत्र में जब गोरखालियों ने आंतक फैलाया तो मॉ ने रात में अपनी उंची आवाज में चिल्ला कर गॉव वालों को जगाया कि गोरखाली गॉव पर धावा बोलने वाले हैं तो रक्षा करने का प्रयास किया और गॉव पर आक्रमण होने का प्रामण दिया तो गोरखालियों ने जब मंदिर देखा तो इस मूर्ति को उल्टा कर दिया और मॉ का सिर नीचे की ओर और पैर उपर हो गये जो आज भी इस गुफा में साक्ष्य के रूप में देखे जा सकते हैं यह स्थान एक बड़ा खेत हैं और इसी गुफा में पैर दिखाई देते हैं अब इस क्षेत्र में स्थानीय लेगों एक देश विदेश के लोगें की मना कामना पूर्ण होने पर मंदिर का बड़ा स्वरूप दे दिया गया है। और यहां हर शनिवार और मंगलबार को श्रद्धालु जाते रहते है।वर्ष भर यहां पूजा अर्चना होती रहती हैं लेकिन मंगसिर के महीने पहले तीर्थ पुरेहितों द्धारा दिन निकाला जाता था और पशु बलि दी जाती थी लेकिन धीरे धीरे पशु बलि पर प्रतिबन्ध लगा कर अब श्रद्धालुओं द्धारा भेंट और मनोकामना पूर्ण होने पर छतर, घाण्ड, घण्टी, और अन्य कई प्रकार के भेंट मॉ को चढाते है। हर वर्ष एक दिन भब्य मेला लगता है। जहां हजारो ंकी संख्या में श्रद्धालु मॉ के दरवार में पहॅूचते हैं। इस वर्ष 2024 दिसम्बर 07 तारीख को भी मेला आयोजित किया गया।

मॉं का इतिहास –
मॉ को मनाते मनाते कई वर्ष बीत गये कि पशु बलि न दी जाये और उसके बदले सिरफल में ही मां की पूजा की जाय लेकिन मॉ नहीं मानी जब की लेगें द्धारा हर वर्ष भब्य पूजा का आयेजन और कथा भागवत भी की जाती हैं लेकिन आखिर मॉ मांन गयी और अब लोग मॉ के दरवार में ढोल दमाउॅ स्थानीय बाध्य यंत्रों के साथ मॉ के जयकारों के साथ मॉ को चढावा में निशान लाते है। और टोली बनाकर इस स्थान पर भव्य नाच गान होते हैं और मॉ के रूप में ज्यादातर बालिकाओं पर मॉ अबतरित होती हैं जो देखने योग्य होता हैं और मॉ अपना काली का रूप अबतरित करती हुई इस थाल में नाजकूद कर शांन्त हो जाती है। ऐसी पूरी जानकारी जितनी हमसे हो सकती हैं हम दे रहे है।
पौड़ी जिले के थलीसैंण विकासखंड के बूंखाल में कालिंका माता मंदिर स्थित है। यह मंदिर लोगों की आस्था, विश्वास और श्रद्धा का एक बड़ा केंद्र है। मंदिर में सदियों से चली बलि प्रथा, बूंखाल मेला इस क्षेत्र की हमेशा से पहचान रही है। साल 2014 से मंदिर में बलि प्रथा बंद होने के बाद पूजा.अर्चना, आरती,डोली यात्रा,कलश यात्रा और मेले के स्वरूप की भव्यता इसकी परिचायक है।

उत्तराखंड में प्रसिद्ध बूंखाल कालिंका माता मंदिर पौड़ी गढ़वाल से जुड़ा कोई प्रमाणिक इतिहास नहीं है। क्षेत्र के बुजुर्गों के अनुसार मंदिर का निर्माण करीब 1800 ईसवीं में किया गया,ए जो पत्थरों से तैयार किया था। वर्तमान में मंदिर के जीर्णोद्धार के बाद आधुनिक रूप दे दिया है।

महात्म्य

थलीसैंण के चोपड़ा गांव में एक लोहार परिवार में एक कन्या का जन्म हुआ, जो ग्वालों ;पशु चुगान जाने वाले मित्र, के साथ बूंखाल में गाय चुगाने गई। जहां सभी छुपन.छुपाई खेल खेलने लगे। इसी बीच कुछ बच्चों ने उस कन्या को एक गड्ढे में छिपा दिया। मंदिर के पुजारी के मुताबिक गायों के खो जाने पर सभी बच्चे उन्हें खोजने चले जाते हैं। गड्ढे में छुपाई कन्या को वहीं भूल जाते हैं। काफी खोजबीन के बाद कोई पता नहीं चला। इसके बाद वह कन्या अपनी मां के सपने में आई। मां काली के रौद्र रूप दिखी कन्या ने हर वर्ष बलि दिए जाने पर मनोकानाएं पूर्ण करने का आशीर्वाद दिया। इसके बाद चोपड़ा, नलई, गोदा, मलंद, मथग्यायूं, नौगांव आदि गांवों के ग्रामीणों ने कालिंका माता मंदिर बनाया।

पुजारी लेग –मंदिर में पूजा.अर्चना की जिम्मेदारी गोदा के गोदियालों को दी गई, जो सनातन रूप से आज भी इसका निर्वहन कर रहे हैं। मंदिर वर्षभर श्रद्धालुओं के लिए खुला रहता है। यहां विकास खंड खिर्सू, पाबौ, थलीसैंण, नैनीडांडा का मुख्य केंद्र भी है।

मॉ के दरवार में ऐसे पहुंचे बूंखाल कालिंका

बूंखाल कालिंका माता मंदिर पहुंचने के लिए सड़क मार्ग सबसे ज्यादा सुगम है। ऋषिकेश नजदीकी रेलवे स्टेशन है। यहां से करीब 100 किमी की दूरी बस से तय कर पौड़ी पहुंचा जा सकता है। यहां से दूसरे वाहनों से 60 किमी तय कर पौड़ी.खिर्सू होते हुए बूंखाल आसानी से पहुंचा जा सकता है। इसके अलावा कोटद्वार रूट से आने वाले श्रद्धालु पाबौ.पैठाणी.बूंखाल मोटर मार्ग के माध्यम से मंदिर तक पहुंच सकते हैं। चुठानी.नलई.बूंखाल मोटर मार्ग भी बूंखाल आने.जाने के मार्गों में शामिल है।

वहीं मंदिर के पुजारी बताते हैं कि मंदिर में पहले पशुबलि होती थी। साल 2014 से पशुबलि पूरी तरह बंद है। इसके बाद कालिंका माता मंदिर में पूजा.अर्चनाए आरतीए डोली यात्राए कलश यात्रा जैसे नए आयाम जुड़े हैं। मार्गशीर्ष माह में होने वाला एक दिवसीय मेले का विशेष महत्व है।हर वर्ष मॉ के दरवार में देवी भागवत मॉ का चण्डिका का पाठ आदि किया जाता है। देश विदेश से इस दिन मॉ के दरवार में जिनकी मनते पूरी होती हैं और श्रद्धालु पहॅूचते हैं।
हरेन्द्र नेगी गॉव तक डाट काम पर देखें पूरी जानकारी ।

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